झाड़ियों में मिला नवजात शिशु, रंडीबाजी की चुप्पी और नवजात की चीख
ढीमरखेड़ा | मध्यप्रदेश के कटनी जिले के ढीमरखेड़ा जनपद की ग्राम पंचायत भटगवां के आश्रित ग्राम भसेड़ा में एक हृदयविदारक घटना सामने आई। गांव के बाहरी हिस्से में स्थित घनी झाड़ियों में एक नवजात शिशु लावारिस अवस्था में पड़ा मिला। उसकी किलकारियों ने वहां से गुजर रहे ग्रामीणों का ध्यान खींचा और जल्द ही यह खबर पूरे क्षेत्र में आग की तरह फैल गई। आनन-फानन में सरपंच अशोक दाहिया ने अपनी सक्रियता दिखाई और नवजात को सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र उमरियापान पहुंचाया, जहां उसका इलाज जारी है।यह घटना केवल एक बच्चे के मिलने भर की नहीं है; यह उस सामाजिक विडंबना की ओर इशारा करती है जहां अनैतिक संबंधों, देह व्यापार और सामाजिक डर के कारण नवजातों को उनके भाग्य के भरोसे छोड़ दिया जाता है। ग्राम भसेड़ा में सुबह के समय कुछ ग्रामीण लकड़ी बीनने निकले थे। तभी उन्हें झाड़ियों से किसी नवजात की रोने की आवाज सुनाई दी। पहले तो उन्हें भ्रम हुआ, पर जब वे पास पहुंचे तो वहां एक नवजात शिशु खून और माटी से सना हुआ पड़ा मिला। उसे देखकर सबके रोंगटे खड़े हो गए। कोई कपड़ा नहीं, कोई सहारा नहीं। केवल एक मासूम जान, जो किलकारी मारते हुए मानो जीवन के लिए गुहार लगा रही थी। ग्रामीणों ने तुरंत इसकी सूचना सरपंच अशोक दाहिया को दी। सरपंच ने विलंब किए बिना निजी वाहन की व्यवस्था की और बच्चे को सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र उमरियापान भेजा। डॉक्टरों ने समय रहते इलाज शुरू कर दिया और फिलहाल बच्चे की हालत स्थिर बताई जा रही है।
*समाज की चुप्पी और रंडीबाजी का दंश*
यह कोई पहली घटना नहीं है। देशभर में हर साल सैकड़ों नवजात शिशु इस तरह झाड़ियों, कूड़ेदानों, रेलवे स्टेशनों या मंदिरों के बाहर पाए जाते हैं। इसके पीछे कई बार बलात्कार, गैरकानूनी रिश्ते, और देह व्यापार जैसी सामाजिक बुराइयां होती हैं।भसेड़ा की घटना भी संभवतः ऐसे ही किसी मामले से जुड़ी है, जहां किसी महिला ने सामाजिक डर, बदनामी, या जिम्मेदारी से बचने के लिए नवजात को मरने के लिए छोड़ दिया। रंडीबाजी यानी वेश्यावृत्ति का यह वह रूप है जहां सिर्फ स्त्री की देह बिकती नहीं, बल्कि उसके साथ उपजे संबंधों की भी कीमत चुकानी पड़ती है और वह कीमत अकसर एक मासूम नवजात को भुगतनी पड़ती है।
*नवजातों का भविष्य सवालों के घेरे में*
ऐसे नवजात जिनका न कोई नाम होता है, न घर-परिवार। अस्पताल में भर्ती होने के बाद भी उनका भविष्य अधर में होता है। यदि उन्हें गोद लेने वाला कोई दंपत्ति मिल जाए तो शायद जीवन मिल जाए, वरना बाल गृहों में उनका जीवन उपेक्षा और तकलीफों के बीच गुजरता है। सरकारी योजनाएं जैसे 'पालना घर योजना' और 'आश्रय योजना' जरूर हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर इनका लाभ कितने नवजातों तक पहुंच पाता है, यह सोचने का विषय है।
*सरपंच की सक्रियता और मानवीय पहलू*
इस घटना में सरपंच अशोक दाहिया की भूमिका बेहद सराहनीय रही। ग्रामीणों की सूचना पर उन्होंने देर नहीं की और न सिर्फ बच्चे को अस्पताल पहुंचाया, बल्कि इलाज की प्रक्रिया को भी निगरानी में रखा। जब प्रशासन और सिस्टम अकसर सुस्त हो जाता है, तब स्थानीय जनप्रतिनिधियों की ऐसी सक्रियता समाज को उम्मीद देती है।
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