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विक्रेताओं के शोषण और शासन की अनदेखी उचित मूल्य दुकान प्रणाली का एक कड़वा सच

 विक्रेताओं के शोषण और शासन की अनदेखी उचित मूल्य दुकान प्रणाली का एक कड़वा सच



ढीमरखेड़ा |  भारत सरकार ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) के माध्यम से गरीब और जरूरतमंद वर्गों को सस्ते दामों पर खाद्यान्न उपलब्ध कराने के उद्देश्य से उचित मूल्य दुकानों की स्थापना की थी। इन दुकानों के संचालन के लिए स्थानीय लोगों को विक्रेता के रूप में नियुक्त किया जाता है, जो शासन द्वारा तय नियमों के अंतर्गत कार्य करते हैं। लेकिन दुर्भाग्यवश, कई स्थानों पर इस प्रणाली का गंभीर रूप से दुरुपयोग हो रहा है। वर्तमान में जिस स्थिति की हम बात कर रहे हैं, उसमें एक विक्रेता को शासन द्वारा केवल एक दुकान संचालन की अनुमति होने के बावजूद एक ही व्यक्ति से तीन-तीन उचित मूल्य की दुकानों का संचालन करवाया जा रहा है। यह न केवल शासन के नियमों का उल्लंघन है, बल्कि मानवाधिकारों का हनन भी है।

*विक्रेता की स्थिति*

एक विक्रेता को तीन दुकानों का संचालन अकेले करना पड़ रहा है। हर दुकान का संचालन न केवल समय-साध्य है, बल्कि शारीरिक और मानसिक रूप से भी बेहद कठिन है। शासन के नियम स्पष्ट रूप से कहते हैं कि एक विक्रेता को केवल एक दुकान ही दी जा सकती है ताकि वह ईमानदारी से और समय पर वितरण कार्य कर सके। लेकिन इस मामले में स्थानीय अधिकारियों की मिलीभगत और राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण नियमों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं।तीन दुकानों का संचालन करना किसी एक व्यक्ति के लिए असंभव नहीं तो अत्यंत चुनौतीपूर्ण जरूर है। विक्रेता को न केवल अलग-अलग स्थानों पर जाकर राशन वितरण करना पड़ता है, बल्कि वह स्टॉक रजिस्टर, लाभार्थियों की जानकारी, डिजिटल हस्ताक्षर, मशीन संचालन, वितरण पर्ची आदि का भी अलग-अलग हिसाब रखता है। इन सब कार्यों के लिए एक बड़ी टीम की आवश्यकता होती है, लेकिन यहां यह सब कुछ एक ही व्यक्ति से करवाया जा रहा है।

*शासन की अनदेखी*

विक्रेता ने शासन को बार-बार अपनी स्थिति से अवगत कराया है। उसने यह भी बताया कि वह मानसिक रूप से टूट चुका है, शारीरिक रूप से थक गया है, और आर्थिक रूप से भी संकट में है। उसने कई बार आवेदन दिए, शिकायतें दर्ज करवाईं, लेकिन किसी भी स्तर पर उसे न्याय नहीं मिला। यह एक चौंकाने वाला उदाहरण है कि जब एक नागरिक अपने अधिकारों के लिए शासन से सहायता मांगता है, तो शासन किस तरह आंखें मूंद लेता है। विक्रेता आज मरने की कगार पर है न खाने की सुध है, न आराम का समय, और ऊपर से हर समय अधिकारियों द्वारा जांच, नोटिस, और कार्यवाही की धमकी।

*मानसिक उत्पीड़न की स्थिति*

विक्रेता पर यह दबाव बनाया जा रहा है कि यदि वह इन तीनों दुकानों का संचालन सही ढंग से नहीं करेगा तो उसके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही की जाएगी। जब वह अपनी असमर्थता प्रकट करता है, तब भी उसे धमकाया जाता है कि उसकी दुकान निरस्त कर दी जाएगी। उस पर बेबुनियाद आरोप लगाए जाते हैं, रिकॉर्ड में गड़बड़ी निकाली जाती है, जबकि वह दिन-रात मेहनत करके सिस्टम को टिकाए हुए है। कभी राशन की देरी पर लाभार्थियों की शिकायतें, कभी मशीन की खराबी, कभी नेटवर्क की समस्या – इन सबका दोष भी उसी पर मढ़ा जाता है।

*अन्याय की जड़ में कौन?*

यह पूरा मामला भ्रष्टाचार की बू देता है। संभवतः स्थानीय प्रशासन के कुछ अधिकारी या जनप्रतिनिधि एक ही व्यक्ति से तीन दुकानें चलवाकर अपना निजी लाभ देख रहे हैं। उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि विक्रेता कैसे जी रहा है, बस राशन का स्टॉक आता रहे और उनका हिस्सा निकलता रहे। इसमें उन पात्र व्यक्तियों की भी भूमिका संदिग्ध है जिनके पास विक्रेताओं के चयन, नियुक्ति और निरीक्षण की जिम्मेदारी है। क्या उन्हें यह नहीं पता कि एक ही व्यक्ति से तीन दुकानों का संचालन करवाना नियमविरुद्ध है?

*संविधानिक और मानवाधिकार का उल्लंघन*

यह मामला संविधान में दिए गए जीवन के अधिकार (Right to Life) के सीधे उल्लंघन का है। जब कोई व्यक्ति मानसिक रूप से इस हद तक परेशान हो जाए कि वह आत्महत्या की सोचने लगे, तो वह न केवल शासन व्यवस्था की विफलता है, बल्कि यह एक सभ्य समाज पर भी प्रश्नचिह्न है। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में एक ईमानदार नागरिक से अगर जबरन तीन दुकानें चलवाई जाएं, और शिकायत पर उसे धमकाया जाए, तो यह सीधे तौर पर मानवाधिकार आयोग का मामला बनता है।

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