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खरी-अखरी (सवाल उठाते हैं पालकी नहीं) विशेष विचारधारा के जजों से मुक्ति चाहती है भारत की न्यायपालिका

 खरी-अखरी (सवाल उठाते हैं पालकी नहीं) 

विशेष विचारधारा के जजों से मुक्ति चाहती है भारत की न्यायपालिका



*भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने एकबार फिर अफलातून के इस कथन को सत्य की तराजू पर तौल दिया है कि "कानून के जाल में सिर्फ मछलियां फंसती हैं मगरमच्छ तो जाल फाड़ कर बाहर निकल आते हैं" । तोते की जान (ताकत) किसी दूसरे की मुठ्ठी में कैद होती है वैसे ही न्यायाधीशों को बाहर का रास्ता दिखाने वाली ताकत (जान) सीजेआई की जगह संसद की मुठ्ठी में कैद है। मतलब कहा जा सकता है कि सुप्रीम कोर्ट एक परकटे पक्षी की तरह है जो फड़फड़ा तो सकता है मगर अपने कलीग्स का कुछ बिगाड़ नहीं सकता। सुप्रीम कोर्ट को अपने खिलाफ की गई आलोचना से मिली संवैधानिक ताकत कोर्ट की अवमानना उसके सारे पापों का सुरक्षा कवच अभेद्य है जिसे भेदने के लिए कोई अभिमन्यु, अर्जुन, कृष्ण का अवतरण नहीं हुआ है।*


*न्यायपालिका के न्यायाधीशों पर लगने वाले भृष्टाचार के आरोप कोई नये नहीं हैं। 2009 में तो सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठतम अधिवक्ता स्व शांति भूषण और उनके पुत्र वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने तो न्यायपालिका के भृष्ट जजों की संख्या मय नाम जारी की थी। मगर हुआ वही था जिसकी आशंका थी । प्रधान न्यायाधीश ने स्व-संज्ञान लेकर भूषण द्वय पर न्यायपालिका की अवमानना का मुकदमा दर्ज किया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजेज नियुक्त के लिए काॅलेजियम की व्यवस्था कर रखी है। काॅलेजियम में सुप्रीम कोर्ट प्रधान न्यायाधीश तथा 4 वरिष्ठ जजेज होते हैं। देखने में आया है कि अधिवक्ताओं के बीच में से चुने जाने वाले जजेज में अधिकतम वे ही चुने जाते हैं जिनके परिजन हाईकोर्ट - सुप्रीम कोर्ट में जज रह चुके होते हैं या जज होते हैं। इसके अलावा वे लोग जज चुने जाते हैं जो सत्ताधारी पार्टी की विचारधारा से तालमेल रखने वाले अधिवक्ता जिनकी पैठ पार्टी के हाईकमान स्तर पर होती है। भृष्टाचार के आरोपी जज को पदच्युत करने का अधिकार सीजेआई को नहीं होता। उसके लिए राष्ट्रपति को सिफारिश की जाती है उसके बाद राष्ट्रपति उस सिफारिश को संसद में भेजते हैं और फिर तय प्रक्रिया के मुताबिक सांसद तय करते हैं कि आरोपी जज पर महाभियोग चलाने की प्रक्रिया शुरू करे या नहीं। अगर सदन महाभियोग चलाने की सिफारिश खारिज कर देती है तो फिर सुप्रीम कोर्ट कुछ नहीं कर सकता है। इसीलिए आजाद भारत के इतिहास में आज तक किसी भी न्यायाधीश को महाभियोग के जरिए हटाया नहीं गया है।*


*देश की तमाम संवैधानिक संस्थाओं ने दिल्ली दरबार के आगे अपने अस्तित्व को खो सा दिया है। केवल न्यायपालिका ही बची हुई थी जिस पर लोगों को इसलिए भरोसा है कि वह संविधान और कायदे कानून की कस्टोडियन है। देशवासियों के मन में यह धारणा है कि न्यायमूर्ति सच्चाई, त्याग और न्याय की प्रतिमूर्ति होते है। मगर अब न्यायपालिका से आने वाले फैसलों से न्याय गायब होता जा रहा है और उसकी जगह निर्णय जगह लेता जा रहा है वह भी आधा अधूरा (घर का ना घाट का)। वैसे भी विलंब से दिया गया निर्णय भी अन्याय ही होता है। उससे देशवासियों के बीच खासतौर पर सर्वहारा वर्ग के मन में न्यायपालिका के प्रति विश्वास दरकता जा रहा है। लोग मानने लगे हैं कि न्यायपालिका संविधान और कायदे कानून और लोगों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के प्रति जवाबदेह नहीं रह गई है। और यह धारणा तब और पुख्ता हो जाती है जब देश की सबसे बड़ी अदालत का जज अपने ही खिलाफ लगे यौन शोषण जैसे गंभीरतम आरोप की सुनवाई करने वाली पीठ की अगुवाई करता है और खुद को बरी कर देता है। ऐसा शायद ही दुनिया की किसी न्यायपालिका में हुआ हो, हम ही आरोपी हम ही न्यायाधीश। सुप्रीम कोर्ट का प्रधान न्यायाधीश जब सार्वजनिक तौर पर यह कहता है कि उसने तो फलां केस का निर्णय भगवान से पूछ कर भगवान के पक्ष में लिखा है।*


*विधिवेत्ताओं का मानना है कि अब ज्यूडीसरी एक खास अंदाज में चंद सत्तारुढ़ लोगों (मदारी) के हाथ का जमूरा बन चुकी है। न्यायपालिका के न्यायाधीशों के फैसलों पर और अव्यवहारिक आचरण पर पहले भी विधिवेत्ताओं द्वारा उंगलियां उठाई जाती रही है। मगर जिस समय से रंजन गोगोई ने संवैधानिक मर्यादाओं को कुचल कर (खुद पर लगे यौन शोषण पर सुनवाई करने वाली बेंच में शामिल होकर खुद को निर्दोष होने का आदेश पारित करना) सीजेआई की कुर्सी हथियाई थी उसके बाद से सुप्रीम कोर्ट के हर जज और होने वाले सीजेआई के फैसलों को संदेह की नजरों से देखा जाने लगा है। सीजेआई धनंजय यशवंत चंद्रचूड से देश को बहुत आशायें थी लेकिन उन्होंने जिस तरह से अपने लंबे कार्यकाल के दौरान न्याय के तराजू पर डंडी मारते हुए आधे अधूरे निर्णय दिये उसने भी लोगों के मन में न्याय के प्रति अश्रद्धा को ही जन्म दिया है। जस्टिस संजीव खन्ना के सीजेआई बनने पर भी उनकी पारिवारिक न्यायिक पृष्ठभूमि को देखते हुए विधिवेत्ताओं ने उम्मीद की कि भले ही सीजेआई संजीव खन्ना का कार्यकाल सीमित अवधि का हो मगर वे अपने फैसलों से इतिहास रचेंगे लेकिन जैसे - जैसे समय गुजरता जा रहा है लोगों की उम्मीदें टूटने लगी हैं।*


*दिल्ली उच्च न्यायालय में सिटिंग जज जस्टिस यशवंत वर्मा के सरकारी घर पर जो घटना घटी और उस पर जिस तरह से सीजेआई जस्टिस संजय खन्ना की भूमिका सामने आई उसने सीजेआई की न्यायिक निष्ठा को संदेह के कटघरे में खड़ा कर दिया है। खबर जो सामने आई है उसके अनुसार दिल्ली हाई कोर्ट में सिटिंग जज जस्टिस यशवंत वर्मा के सरकारी घर पर 14 फरवरी 2025 की रात 11 बजे के आसपास आग लगती है। जस्टिस वर्मा के आउट ऑफ स्टेशन होने से घरवालों द्वारा नगर निगम दिल्ली को खबर दी जाती है। नगर निगम दिल्ली के दो दमकल आकर आधे घंटे के भीतर आग पर काबू पा लेते हैं। स्टेशनरी और स्टोर रूम में आग बुझने के बाद उस जगह पर अधजले नोटों का जखीरा मिलता है। उसकी खबर सीजेआई तक पहुंचाई जाती है। सीजेआई आनन-फानन में रात को ही काॅलेजिय की बैठक बुलाते हैं। काॅलेजिम में सीजेआई जस्टिस संजीव खन्ना के अलावा जस्टिस बी आर गवई, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस अभय एस ओक, जस्टिस विक्रमनाथ शामिल थे। विचार विमर्श के बाद मामले की प्रारंभिक रिपोर्ट दिल्ली हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस देवेन्द्र उपाध्याय से मांगने और जस्टिस वर्मा को इलाहाबाद हाई कोर्ट में ट्रांसफर करने का निर्णय लिया जाता है। लेकिन इस सारी कवायद की खबर देश को नहीं होने दी जाती।*


*देश को तो तब पता चलता है जब द टाइम्स आफ इंडिया के जर्नलिस्ट धनंजय महापात्रा ने 20 मार्च को अखबार में FIRE AT DELHI HC JUDGE'S HOUSE LEAD TO RECOVERY OF CASH PILE शीर्षक से खबर प्रकाशित की। जिससे समूचे न्यायिक जगत और देशभर में हड़कंप मच गया। क्योंकि देश के न्यायिक इतिहास में संभवतः पहली बार किसी सिटिंग जज के घर पर नोटों का जखीरा सामने आया है। सुप्रीम कोर्ट और सीजेआई जस्टिस खन्ना पर एक हफ्ते तक खबर को छुपाये रखने के आरोप लगाये जाने लगे हैं । अभी तक तो मंत्रियों - संतरियों, नौकरशाहों के ही घरों से नोटों के जखीरे सामने आते रहे हैं। कांग्रेस नेता सुखराम का नाम तो आज भी तरोताजा है। राजनीतिक दलों को भी कहने का मौका मिल गया है। राज्य सभा के सभापति जगदीप धनखड़ ने भी अपनी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। मोदी सरकार तो सुप्रीम कोर्ट के काॅलेजिम को खत्म कर जजों की नियुक्ति अपने हाथ में लेने के लिए लंबे समय से प्रयासरत है। इस पारदर्शिता पर पर्दा डालने ने उसे बैठे बिठाये मौका दे दिया है। दिल्ली हाई कोर्ट के सीजे का यह कहना - आश्चर्यजनक, हम स्तब्ध और सुप्रीम कोर्ट का कहना - जस्टिस वर्मा के घर को लेकर अफवाह फैलाई जा रही है और तथ्यों को तोडमरोड कर प्रस्तुत किया जा रहा है, जांच अलग मामला है तथा दिल्ली फायर स्टेशन के चीफ अतुल गर्ग के विरोधाभासी बयान सारे मामले को संदेहास्पद बनाने के लिए पर्याप्त हैं।*


*सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस एस एन ढींगरा की टिप्पणी सामने आई है, उनके अनुसार न्यायपालिका में लंबे समय से भृष्टाचार है, इसे खत्म करने के लिए ठोस कदम नहीं उठाए गए, आम आदमी पीड़ा भोगता है, जज के घर करेंसी मिली तो सुप्रीम कोर्ट को एफआईआर दर्ज करने की अनुमति देनी थी, आगे कार्रवाई वैसे ही हो जैसे आम आदमी पर होती है। कांग्रेस नेत्री सुप्रिया श्रीनेत - यह दिल्ली हाई कोर्ट के जज यशवंत वर्मा जी हैं, जज साहब शहर से बाहर थे, घर में आग लग गई, फायर ब्रिगेड ने आग बुझाई, लेकिन पुलिस को घर में खूब सारा कैश मिला तो जरूर आईटी-ईडी-सीबीआई पहुंची होगी, पूंछतांछ कार्यवाही होगी लेकिन नहीं उनका तबादला कर दिया गया और हो गया न्याय। इसी तरह कांग्रेस के प्रवक्ता पवन खेड़ा ने भी पार्टी की आधिकारिक प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि जज साहब के घर से इतने भारी कैश की बरामदगी का मामला बेहद संगीन है, तबादले मात्र से इसे रफा-दफा नहीं किया जा सकता। जस्टिस वर्मा उन्नाव रेप केस सहित अन्य कई गंभीर मामलों की सुनवाई कर रहे थे, ये पैसा किसका है और जज साहब को क्यों दिया गया।*


*विधिवेत्ताओं का कहना है कि जस्टिस वर्मा ने जिन कार्पोरेट और हाई वोल्टेज केसों की सुनवाई की है उन सभी केसों की समीक्षा की जानी चाहिए। वैसे भी निलंबन और ट्रांसफर पनिशमेंट की श्रेणी में नहीं आते हैं। इसके पहले भी पंजाब - हरियाणा हाईकोर्ट की जस्टिस निर्मलजीत कौर के घर पर भी 15 लाख कैस बरामदगी की खबर आई थी। कई विधिवेत्ताओं की माने तो उनके मुताबिक जस्टिस वी रामास्वामी, जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस सौमित्र सेन, जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस अरूण मिश्रा, जस्टिस शेखर यादव, जस्टिस राममनोहर मिश्र आदि कुछ ऐसे नाम हैं जिन्होने न्यायपालिका की साख को ठेस पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई है।*


*सुप्रीम कोर्ट काॅलेजिम द्वारा जस्टिस यशवंत वर्मा को इलाहाबाद हाई कोर्ट वापस भेजे जाने पर अपनी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा है कि इलाहाबाद हाई कोर्ट को कूड़ादान नहीं है। इलाहाबाद बार एसोसिएशन ने सुप्रीम कोर्ट को लिखे पत्र में कहा है कि जस्टिस यशवंत वर्मा के घर से 15 करोड़ रुपये मिले हैं (जबकि अभी किसी भी ऐजेंसी द्वारा मिले रूपयों का खुलासा नहीं किया गया है)। जस्टिस वर्मा का यहां सम्मान नहीं किया जायेगा। इलाहाबाद हाई कोर्ट का एक सम्मानीय इतिहास रहा है लेकिन हाल ही कुछ जज उस सम्मानित इतिहास को कलंकित करने में कोई कसर बाकी नहीं  रख रहे हैं । सुप्रीम कोर्ट को इलाहाबाद हाई कोर्ट के बारे में यह तक कहना पड़ा कि यहां कुछ सड़ रहा है। सवाल है कि जब सुप्रीम कोर्ट को सडांध की खबर तो उसे दूर करने के लिए कोई प्रयास क्यों नहीं किए जा रहे हैं। वैसे देखा जाए तो यह सडांध केवल इलाहाबाद हाई कोर्ट में भर नहीं है। हमाम में सब नंगे हैं मगर न्यायपालिका की अवमानना तले कौन कहे राजा नंगा है। कई मौकों पर केन्द्र की सत्ता और लोकतंत्र के तमाम रखवाले संवैधानिक संस्थान सुप्रीम कोर्ट की नाक के नीचे एक्सपोज हो गये लेकिन सुप्रीम कोर्ट न्याय करना तो दूर न्याय करते हुए भी दिखाई नहीं दिया। क्या देश की कानून व्यवस्था, देश का कानून कमजोर हो गया है, दम तोड़ रहा है।*


*जस्टिस यशवंत वर्मा की पैदाईश 6 जनवरी 1969 को इलाहाबाद में हुई थी, रीवा विश्वविद्यालय से लाॅ ग्रेजुएशन करने के बाद 8 अगस्त 1992 को इलाहाबाद बार एसोसिएशन में बतौर अधिवक्ता नामिनेट हुए, 2012-13 तक यूपी के मुख्य स्थाई अधिवक्ता रहे, 13 अक्टूबर 2014 को इलाहाबाद हाई कोर्ट में एडीशनल जज नियुक्त किया गया तथा 1 फरवरी 2016 को परमानेन्ट जज बनाया गया। जस्टिस वर्मा को 2021 में इलाहाबाद हाई कोर्ट से दिल्ली हाई कोर्ट में पदस्थ किया गया। जस्टिस यशवंत वर्मा के पिता भी इलाहाबाद कोर्ट में जज रहे हैं। फिलहाल सीजेआई जस्टिस संजीव खन्ना ने 22 मार्च को जस्टिस यशवंत वर्मा पर लगे आरोपों की जांच के लिए तीन सदस्यीय जांच कमेटी गठित कर दी है। जांच कमेटी में पंजाब एंड हरियाणा हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस शील नागू, हिमालय प्रदेश हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जी एस सांधवालिया और कर्नाटक हाई कोर्ट की जज जस्टिस अनु शिवारमन को शामिल किया गया है। साथ ही जस्टिस यशवंत वर्मा पर न्यायिक कार्य करने की रोक लगा दी गई है।*


*देखने में तो यही आ रहा है कि लोकतंत्र के सारे स्तंभ 2014 के बाद से धराशायी होकर अपनी विश्वसनीयता खो चुके हैं, देशवासियों का भरोसा एकमात्र ज्यूडीसरी पर बचा था वह भी धराशायी होता हुआ दिख रहा है, निचली अदालतों से लेकर ऊपरी अदालतों ने दिल्ली सरकार के हाथों अपनी बांह थमा दी है। न्यायिक व्यवस्था में ऐसे लोगों की एंट्री हो चुकी है जो जजेज और क्लाइंट के बीच के लेनदेन में इन्वॉल्व रह कर अपना भी उल्लू सीधा करते रहते हैं, उस कड़ी में वकील समुदाय के शामिल होने से भी इंकार नहीं किया जा सकता है। जस्टिस यशवंत वर्मा अग्नि कांड ने पूरी ज्यूडीसरी और सीजेआई जस्टिस संजीव खन्ना की साख को भी दांव पर लगा दिया है। देखना है सीजेआई जस्टिस संजीव खन्ना कैसे अपनी और न्यायपालिका की साख को भंवर से निकाल कर आम आदमी के मन में ज्यूडीसरी के प्रति सम्मान और विश्वास को फिर से स्थापित कर पाते हैं।*


_न्यायपालिका और अपने बचे खुचे सम्मान को बचाने क्या इस्तीफा देंगे जस्टिस यशवंत वर्मा_?


*अश्वनी बडगैया अधिवक्ता*

_स्वतंत्र पत्रकार_

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