समाज में दोहरे मानदंड और आत्ममूल्यांकन की कमी, पीता शराब हैं और कहता हैं कि नशा ख़राब है, खुद कुछ करता नहीं और कहता हैं कि किस्मत ख़राब हैं, यहां हर एक आदमी की यही कहानी हैं, अच्छा खुद नहीं और कहता हैं कि जमाना ख़राब हैं
समाज में दोहरे मानदंड और आत्ममूल्यांकन की कमी, पीता शराब हैं और कहता हैं कि नशा ख़राब है, खुद कुछ करता नहीं और कहता हैं कि किस्मत ख़राब हैं, यहां हर एक आदमी की यही कहानी हैं, अच्छा खुद नहीं और कहता हैं कि जमाना ख़राब हैं
ढीमरखेड़ा | आज के समाज में एक विचित्र विरोधाभास देखने को मिलता है, लोग अपने जीवन में बुरी आदतों को अपनाते हैं, लेकिन दूसरों को नसीहत देने से नहीं चूकते। वे खुद अपने कर्मों से कोई सीख नहीं लेते, फिर भी दूसरों को सीख देने का ठेका ले लेते हैं। यह समस्या केवल व्यक्तिगत स्तर तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरे समाज की मानसिकता को दर्शाती है।
*दोहरे मानदंडों की जड़ें*
हमारे समाज में यह मानसिकता इस वजह से बनी है क्योंकि लोग अपनी असफलताओं और गलतियों के लिए खुद को ज़िम्मेदार ठहराने के बजाय, दूसरों या परिस्थितियों को दोष देना ज़्यादा आसान समझते हैं। उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति खुद शराब पीता है, मगर जब उसका बेटा शराब पीने लगे, तो उसे बुरा लगता है और वह उसे नशे के दुष्परिणामों पर लंबा भाषण दे डालता है। इस तरह के दोहरे मानदंड सिर्फ शराब तक ही सीमित नहीं हैं। कुछ माता-पिता खुद पढ़ाई में रुचि नहीं लेते, मगर बच्चों से उम्मीद करते हैं कि वे दिन - रात मेहनत करें और टॉप करें। कई लोग अपने घर में महिलाओं का सम्मान नहीं करते, मगर बाहर जाकर नारी सशक्तिकरण की बातें करते हैं। लोग खुद भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते हैं रिश्वत देते हैं, गलत रास्ते अपनाते हैं लेकिन जब कोई और यही करे, तो समाज और व्यवस्था को दोष देते हैं।
*किस्मत को दोष देना, स्वयं के कर्मों से बचने का आसान रास्ता*
"खुद कुछ करता नहीं और कहता है कि किस्मत ख़राब है।" यह कथन उन लोगों पर सटीक बैठता है जो अपने जीवन में मेहनत नहीं करते, लेकिन जब सफलता नहीं मिलती, तो भाग्य को कोसते हैं। अगर हम इतिहास और वर्तमान को देखें, तो हमें ऐसे अनगिनत उदाहरण मिलेंगे जहाँ लोगों ने अपनी मेहनत से भाग्य को भी बदल दिया। मगर कई लोग मेहनत करने के बजाय अपनी असफलताओं का दोष भाग्य पर डालना पसंद करते हैं। यह प्रवृत्ति समाज में नकारात्मकता को जन्म देती है और नई पीढ़ी को भी आलसी और भाग्यवाद में विश्वास रखने वाला बना देती है। अगर केवल भाग्य से सबकुछ होता, तो किसान दिन-रात खेतों में मेहनत करने के बजाय केवल भगवान से अच्छी फसल की प्रार्थना करता। एक मजदूर रोज मेहनत करता है, अपने परिवार का पालन-पोषण करता है। वहीँ, एक निकम्मा व्यक्ति काम न करने का बहाना बनाकर कहता है कि उसकी किस्मत ही खराब है।
*समाज की सोच दोष दूसरों पर डालना*
"यहाँ हर एक आदमी की यही कहानी है, अच्छा खुद नहीं और कहता है कि जमाना खराब है।" यह समस्या इतनी आम हो चुकी है कि हर कोई खुद को सही और दूसरों को गलत साबित करने में लगा हुआ है।
*अपने भीतर झांकने की जरूरत हर व्यक्ति को खुद से सवाल करना चाहिए*
क्या मैं सच में उतना अच्छा हूँ जितना मैं दुनिया को दिखाने की कोशिश करता हूँ? क्या मैं खुद अपने आदर्शों का पालन करता हूँ, या सिर्फ दूसरों को उपदेश देता हूँ? क्या मेरी असफलताओं का कारण सच में समाज है, या मेरे खुद के कर्म? अगर हर व्यक्ति इन सवालों का ईमानदारी से जवाब दे, तो शायद उसे अपने जीवन के कई उत्तर मिल जाएं।
*समाज को बदलने के लिए आत्मविश्लेषण जरूरी*
अगर हमें समाज को बदलना है, तो सबसे पहले हमें खुद को बदलना होगा। खुद को ईमानदार बनाना होगा, अपनी कमियों को स्वीकार करना होगा, और भाग्य को दोष देने के बजाय मेहनत करनी होगी। दोहरे मानदंडों को छोड़कर, अपने जीवन को एक उदाहरण बनाना होगा, जिससे लोग प्रेरित हों, न कि दोगलापन देखकर हंसें। जब तक लोग अपनी जिम्मेदारी नहीं समझेंगे और खुद को सुधारने के बजाय दूसरों पर दोष डालते रहेंगे, तब तक समाज में यह विरोधाभास बना रहेगा। खुद को सही साबित करने के लिए दूसरों को गलत ठहराने की मानसिकता छोड़नी होगी। अगर हर व्यक्ति अपने कर्मों का मूल्यांकन करे और ईमानदारी से मेहनत करे, तो न सिर्फ उसका जीवन सुधरेगा, बल्कि समाज भी बेहतर बनेगा।
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