*खरी - अखरी*
*मानसिक तौर पर बिके - हारे हुए सैनिकों के बूते जंग नहीं जीती जाती*
*बाॅयलर मुर्गे को जिसे कांग्रेस बाज की माफिक पेश कर रही है उससे भाजपा इतनी भयभीत है कि वह लोकतांत्रिक तरीके से चुनाव लड़ने से पलायन करने लगी है। क्योंकि लोकतांत्रिक तरीके से वही चुनाव लड़ सकता है जिसमें हारने का माद्दा होता है जो फिलहाल तो भाजपा के पास दिखाई नहीं देता है । यही कारण है कि चंडीगढ़ में खेले गए खेल को तरीका बदल - बदल कर 2024 के लोकसभा चुनाव में खेला जा रहा है।*
*पूरे देश ने क्या सारी दुनिया ने देखा कि किस तरह से चंडीगढ़ में नगर निगम के चुनाव में प्रिसाइडिंग अधिकारी अनिल मसीह ने कैमरे के सामने 8 वोटों को खुद ही टैंपर कर भाजपा प्रत्याशी मनोज सोनकर को मेयर बना दिया था वह तो भला हो सुप्रीम कोर्ट का जिसने अनिल मसीह द्वारा की गई बेईमानी को न केवल निर्वस्त्र कर दिया बल्कि हरा दिए गए मेयर उम्मीदवार कुलदीप की ताजपोशी भी कर दी। इससे भाजपा ने की गई चूक से सबक सीखा और अगली चाल मध्यप्रदेश की खजुराहो लोकसभा सीट में निर्वाचन अधिकारी सह कलेक्टर के माध्यम से इंडिया एलाइंस कैंडीडेट मीरा यादव का नामांकन पत्र रद्द करवा कर चली परदे के पीछे रहकर । वैसे विश्वस्त सूत्रों से जो खबर निकलकर आयी उसके अनुसार मीरा यादव का पर्चा खारिज किए जाने की पटकथा प्रदेश भाजपा अध्यक्ष और सपा राष्ट्रीय अध्यक्ष ने मिलकर अपने निजी स्वार्थ पूर्ति के लिए तो उसी समय लिख दी थी जब सपा अध्यक्ष ने इंडिया एलाइंस में समझौते के तहत खजुराहो संसदीय क्षेत्र का चयन किया था। यहां भी भाजपा के ऊपर निर्वाचन अधिकारी सह कलेक्टर के कांधे का उपयोग करने का इल्जाम लगाया गया।*
*अपनी अलोकतांत्रिक नीतियों पर सुधार करते हुए भाजपा द्वारा अगला पांसा मोदी - शाह के गृह राज्य गुजरात की सूरत लोकसभा सीट पर फेंका गया। यहां पर कांग्रेस के कैंडीडेट के प्रस्तावकों का यह एफिडेविट निर्वाचन अधिकारी के सामने पेश करवाया गया कि कांग्रेस कैंडीडेट नीलेश कुंभाणी के प्रस्तावक (जो कि बहनोई और भांजा थे) के हस्ताक्षर नकली हैं। यहां तक तो भाजपा के दामन पर हल्के छींटे पड़े थे जिसे खुद गहरा कर लिया आपरेशन निर्विरोध चलाकर जब बाकी बचे बसपा समेत सभी उम्मीदवारों के नाम वापस कराकर। भाजपा का दांव चंडीगढ़ में सैल्फ गोल वाला रहा तो खजुराहो और सूरत में एम्पायर को साथ लेकर मैच जीतने का रहा। जिससे दामन पर दाग भी लगा और बदनामी भी मिली बतौर बोनस अलग से।*
*मध्य प्रदेश में एक बार फिर आपरेशन निर्विरोध को संशोधित करते हुए पांसे फेके गये। इस बार तो कांग्रेस कैंडीडेट अक्षय कांति बम ने अपना नामांकन फार्म ही वापिस ले लिया। जिससे निर्वाचन अधिकारी पर कोई छींटाकसी नहीं हुई। भाजपा का भी दामन साफ रहता अगर भाजपा विधायक रमेश मंदेला और कैलाश विजयवर्गीय के साथ अक्षय बम की फोटो सोशल मीडिया पर वायरल न हुई होती। इस तस्वीर ने भाजपा की लोकतांत्रिक हत्यारी छबि को उजागर कर दिया।*
*राजनीतिक बियाबान में जाने से पहले कांग्रेस के कद्दावर नेता एमपी के मुख्यमंत्री रहे दिग्विजय सिंह ने एकबार सार्वजनिक रूप से कहा था कि "चुनाव जनता के वोट से नहीं मैनेजमेंट से जीते जाते हैं"। दिग्विजय सिंह का ईशारा प्रशासनिक लाॅबी को मैनेज करने की तरफ था। प्रतीत होता है कि भाजपा ने दिग्विजय सिंह के कहे को गुरु मंत्र की तरह आत्मसात कर लिया है। दिग्विजय ने तो केवल प्रशासनिक अधिकारियों को मैनेज करके चुनाव जीतने का दंभ भरा था भाजपा तो उससे भी सौ कदम आगे निकल गई। जिसने एक साथ सबको साध लिया है चाहे वह प्रशासनिक अधिकारी हों या चुनाव आयोग या फिर न्यायिक क्षेत्र। अब तो उसने विपक्षी उम्मीदवारों तक को साधना शुरू कर दिया है। खजुराहो, सूरत और उसके बाद इंदौर को बतौर मिशाल देखा जा सकता है । आगे और देश के किस राज्य की किस लोकसभा से इस तरह की खबर आ जाये देशवासियों को सुनने के लिए तैयार रहना चाहिए। इस तरह के घटनाक्रम इस ओर की ओर ईशारा कर रहे हैं कि आने वाले चुनाव इसी तरह चुनौती विहीन होंगे या यूं भी कह सकते हैं कि चुनाव ही नहीं होंगे !*
*दिसम्बर 1990 में सुब्रमण्यम स्वामी ने पलक्कड (केरल) निवासी 1955 में बतौर ट्रेनी आईएएस का कैरियर शुरू करने वाले अपने दोस्त को केंद्रीय चुनाव आयोग में मुख्य चुनाव आयुक्त बनवाने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर से पेशकश की थी और चन्द्रशेखर ने उसे मुचुआ बना भी दिया उस व्यक्ति का नाम है टी एन शेषन। जिस समय टी एन शेषन को चुनाव आयुक्त बनाया गया था उस दौर में बैलट पर बुलट भारी था। बंदूक की नोक पर मतपेटियों को लूट लेना आम बात थी। चुनाव प्रक्रिया में सुधार लाने के लिए शेषन ने 1993 में सरकार को 17 पन्ने का एक खत लिखा था साथ ही उसमें यह भी लिखा था कि जब तक सरकार चुनाव आयोग की शक्तियों को मान्यता नहीं देती तब तक देश में कोई चुनाव नहीं होगा। मौजूदा आदर्श आचार संहिता उसी खत का परिणाम है। शेषन का ही साहस था कि उन्होंने चुनाव में पहचान पत्र का इस्तेमाल अनिवार्य कर दिया। शेषन ने स्पष्ट रूप से कह दिया था कि अगर मतदाता पहचान पत्र नहीं बनाये गये तो 1 जनवरी 1995 के बाद भारत में कोई चुनाव नहीं कराए जायेंगे। टी एन शेषन के पहले होने वाले मुख्य चुनाव आयुक्त एक आज्ञाकारी नौकरशाह होते थे। वो वही करते थे जो उस समय की सरकार चाहती थी।*
*टी एन शेषन ने चुनाव व्यवस्था को बदल कर रख दिया था। टी एन शेषन के मचुआ रहते चुनाव के मामले में सरकार अपनी मर्जी चलाने में असहाय व असहज हो चली थी इसलिए सरकार ने एकल चुनाव आयुक्त को त्रिस्तरीय करने का निर्णय लिया जिसमें एक मुख्य चुनाव आयुक्त और दो चुनाव आयुक्त रहेंगे। फैसले बहुमत के आधार पर लिये जायेंगे । चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति सरकार करेगी। आने वाले समय में चुनाव आयुक्तों ने सरकार की चरण वंदना क्या शुरू की शेषन द्वारा बनाई गई आयोग की छबि - चमक धुंधली होती चली गई। वह फिर उसी स्थान पर आकर खड़ा हो गया है जहां वह टी एन शेषन के पहले खड़ा था।*
*रीढ़ विहीन हो चले चुनाव आयुक्तों की दुर्दशा पर ही सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि "देश को घुटनों के बल झुककर सरकार की हां में हां मिलाने वाला चुनाव आयुक्त नहीं चाहिए। यसमैन नहीं चाहिए। देश को ऐसे चुनाव आयुक्त की जरूरत है जो जरूरत पड़ने पर प्रधानमंत्री पर भी कार्रवाई करे। उसके घुटने कमजोर नहीं होने चाहिए। अगर चुनाव आयुक्त ऐसे में प्रधानमंत्री पर कार्रवाई नहीं कर सकता तो क्या ये पूरी व्यवस्था के चरमरा जाने वाली बात नहीं होगी"। शायद इसी वजह से सुप्रीम ने चुनाव आयुक्त चयन के लिए प्रधानमंत्री, विपक्ष का नेता और सीजेआई का पैनल बनाया था। चयन पैनल में सीजेआई के होने से सरकार अपनी मनमानी नहीं कर सकती थी। इसलिए मोदी सरकार ने आयुक्त चयन पैनल से सीजेआई को अलग कर एक ऐसे व्यक्ति को रख दिया जो प्रधानमंत्री की कठपुतली बनकर काम कर सके।*
*न्यायिक क्षेत्र पर बारीक नजर रखने वालों का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट में भी जिस तरह से निर्णय हो रहे हैं उनसे भी ऐसा ही लगता है कि कुछ जजेज के निर्णय का पलड़ा सरकार की तरफ झुका होता है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा ईवीएम और वीवीपैट की याचिका खारिज करने का निर्णय भी कुछ ऐसा ही समझ में आता है । ईवीएम और वीवीपैट की जिस तरह से सुनवाई की जा रही थी और चुनाव प्रक्रिया शुरू होने और प्रथम चरण की वोटिंग के एक दिन पहले जिस तरह से निर्णय सुरक्षित रख लिया गया था उससे ही संकेत मिलने लगे थे कि याचिका खारिज कर दी जायेगी। याचिका खारिज होते ही जिस तरह की प्रतिक्रिया प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दी है उससे भी यही अंदेशा लगता है कि सब कुछ पहले से ही मैनेज हो चुका था। इसके पहले छै सैकड़ा वकीलों का पत्र, फिर दो दर्जन पूर्व न्यायमूर्तियों का पत्र सीजेआई को लिखा जाना बिना कहे बहुत कुछ कहता है। ईवीएम और वीवीपैट का निर्णय भी उसी तरह का लगता है जैसा राम जन्मभूमि पर तत्कालीन सीजेआई रंजन गोगोई की बैंच ने सुनाया था।*
*अश्वनी बडगैया अधिवक्ता*
_स्वतंत्र पत्रकार _
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